नई दिल्ली:  भारत की संसद में महिलाओं की कम भागीदारी कोई नई बात नहीं है, लेकिन मुस्लिम महिलाओं की मौजूदगी इससे भी ज्यादा कम रही है। स्वतंत्रता के बाद से अब तक केवल 18 मुस्लिम महिलाएं ही लोकसभा पहुंच पाई हैं। इस दिलचस्प और चिंताजनक जानकारी को एक नई किताब ‘सदन से गायब – लोकसभा में मुस्लिम महिलाएं’ (‘मिसिंग फ्रॉम द हाउस- मुस्लिम वीमेन इन द लोक सभा’) में सामने लाया गया है। इस किताब को पत्रकार रशीद किदवई और राजनीतिक विश्लेषक अंबर कुमार घोष ने मिलकर लिखा है।

वंशवाद बना सहारा
किताब में बताया गया है कि इन 18 मुस्लिम महिला सांसदों में से 13 महिलाएं राजनीतिक परिवारों से थीं। यानी, चाहे वंशवाद लोकतंत्र के लिए बाधा हो, लेकिन मुस्लिम महिलाओं को राजनीति में आने का मौका इसी रास्ते से ज्यादा मिला।

लोकसभा में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति
अब तक कुल 18 लोकसभाएं बनी हैं, लेकिन 5 बार लोकसभा में एक भी मुस्लिम महिला नहीं थी। 543 सदस्यों वाली लोकसभा में कभी भी एक समय में 4 से ज्यादा मुस्लिम महिलाएं नहीं पहुंच पाईं। हैरानी की बात ये भी है कि दक्षिण भारत के पांच राज्यों, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से अब तक कोई मुस्लिम महिला लोकसभा में नहीं पहुंच सकी, जबकि इन राज्यों को राजनीति और शिक्षा के लिहाज से बेहतर माना जाता है।

ऐसे लोकसभा में पहुंचीं ये महिलाएं
इनमें से मोसीना किदवई एक बड़ी नेता बनीं और कई मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली। जबकि कैसर जहां, जो एक चायवाले की पत्नी थीं, को 2009 में बसपा प्रमुख मायावती ने टिकट दिया और उन्होंने चुनाव जीता। आबिदा अहमद, देश के पांचवें राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की पत्नी थीं, जो चुनाव जीतने वाली पहली और इकलौती प्रथम महिला बनीं। नूर बानो, रामपुर की रानी, ने 1996 और 1999 में चुनाव जीते, लेकिन जया प्रदा के साथ मुकाबले में हार गईं। बंगाली अभिनेत्री नुसरत जहां ने भी 2019 में तृणमूल कांग्रेस से चुनाव जीतकर कई परंपराएं तोड़ीं।

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